इच्छाशक्ति के मंत्र का जाप करते हुए इस कलासाधक ने अंततः साबित कर दिया था कि कला के लिए हदों का कोई मायना नहीं है। वह समूचे विश्व में कहीं भी अपनी सुगंध, अपना पराग बिखेर सकती है। धारवाड़ (कर्नाटक) के समीप एक शैव किसान परिवार में जन्में शंकर होम्बल ने अपने कला जीवन के चढ़ते सोपानों के साथ मध्य भारत को भरतनाट्यम का जो गौरव दिया वह इसी मायने में अद्धितीय है।
पंडित होम्बल की एक सौम्य छवि |
भारतीय नृत्य जगत की महान गुरू श्रीमती रूक्मणी देवी अरूण्डेल की छत्र-छाया में दीक्षित पं. होम्बल गुरू परंपरा से मिले कला के संस्कारों को जीवन की महान निधि मानते थे। धन्यता और कृतज्ञता उनके पोर-पोर से झलकती। कभी अपने इसी शिष्य पर मुग्ध होकर रूक्मणीजी ने आशीष दिया था- ‘‘कलापद्य के रूप में तुम तो भोपाल में एक लघु कलाक्षेत्र बना रहे हो।’’ सचमुच ही आज कलापद्य भरतनाट्यम नृत्य अकादेमी के कार्य और विस्तार को देखकर श्रीमती रूक्मणी देवी के आशीष को तौला जा सकता है।
भरतनाट्यम की प्रस्तुति करते होम्बल |
धारवाड़ में नृत्य की एक संस्था थी, उस संस्था में मेरी पत्नी श्रीमती गिरिजा होम्बल शिक्षिका भी थीं और कार्यक्रम भी देती थीं। जैसे एक आदमी की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है। मेरे साथ, इन्हीं का रहा। उस संस्था में मैं घूमते-घामते पहुंचा। वहां थोड़ा-थोड़ा नृत्य शुरू किया। मैं समझता हूं, एक साल या दो साल में, मैं परफार्मेन्स करने लगा। बाद में पत्नी धारवाड़ आ गई। घर वालों का इनके साथ विवाह का विरोध था, वह उन्हें नाचनेवाली समझते थे तो इन्हें लेकर चुपचाप वहां से मैं भागा और हम ग्वालियर एक मित्र के यहां आए, विवाह किया। वहां हम संयोगवश एक भद्र महिला से मिले नाम था उनका विशालाक्षी जौहरी। वह रूकमणी देवी की छोटी बहन थी। वहां विद्यालय में प्राचार्य थी। उन्होंने इनको (पत्नी) उस विद्यालय में नियमित रूप से शिक्षिका के रूप में रख लिया। इन्हें पैंतीस रूपए मिलने लगे, जीवन शुरू हुआ। श्री होम्बल बताते थे कि वे अपनी नौकरी छोड़ ही चुके थे। कलाकारों को ऐसा करना पड़ता है। ऐसा नहीं होता तो आज मैं यहां नहीं होता। अपनी लंबी कहानी सुनाते हुए वे कहते कि ऐसा कभी नहीं सोचा था। हमने जो भी किया पूरे तन-मन से किया। नृत्य में ही प्रगति करने का मेरा विचार था। उम्र चाहे जो भी हो, कभी-न-कभी ऐसे मोड़ पर कुछ-न-कुछ रास्ता मिल जाता है, तब आपको लगता है हम इसी के लिए आये है। विशालाक्षीजी पत्नी को कला क्षेत्र भेजने वाली थीं। खैर तब तक हमारा एक बेटा हो चुका था और फिर दूसरा भी। वहां एक संस्था भी खोली थी- ‘‘गिरिजा-शंकर कला केन्द्र।’’ ग्वालियर में कुल दस वर्ष रहकर हमने भरतनाट्यम का बहुत प्रचार किया। विशालाक्षीजी ने रूक्मणी देवी से कहकर मुझे कला क्षेत्र में छात्रवृत्ति भी दिलवाई और कुछ समय की हिचकिचाहट के पश्चात उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया।
.एक नृत्य नाटिका में दशरथ की भूमिका में पंडित शंकर होम्बल |
रूक्मणी देवी से मैंने कला की सेव का आदर्श ग्रहण किया। यह सही है कि कलाक्षेत्र में श्रृंगार अभिनय कम होता था, पर मुझे गाना आने की वजह से खुद करने में बहुत मजा आता था। पहले जब मैं पच्चीस-पैंतीस वर्ष की आयु में था तब मैंने श्रृंगार इतना खुलकर नहीं किया। उसके बाद चालीस-पैंतालीस वर्ष की आयु तक खुलकर बताता था और अब तो अभिनय बताने में मैं ठहर ही जाता हूं। मुझे सब शिष्याएं अपनी लड़कियां ही लगती हैं। पंडितजी को इस बात का संतोष रहा कि जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री जया भादुड़ी बच्चन से लेकर शिकागो में बसी उनकी बेटी पारिजाता वर्गीश तथा प्रसिद्ध नृत्यांगना लता सिंह मुंशी, श्वेता शर्मा, रूचि जोशी, पारूल पंड्या आदि उन्हें पहले सा आदर देती रही। अपने बचपन के शहर भोपाल जब एक बार जया बच्चन आयीं तो भारत भवन के मंच से गुरू पंडित होम्बल को वहां देखकर उनका चरण स्पर्श करने दर्शक दीर्घा में गयीं और गुरूजली की कुशलता के समाचार जाने।
होम्बल के अनुसार म.प्र. में भरतनाट्यम प्रचलित हो इस उद्देश्य से मैंने ही सर्वप्रथम हिन्दी काव्य का उपयोग किया। कहते थे चूंकि हिन्दी से मैं घनिष्ठता से जुड़ा था, इस कारण सुर, तुलसी जैसे अनेक कवियों की रचनाओं द्वारा मैं भरत नाट्यम का विस्तारपूर्वक प्रचार करने में सफल रहा। ‘नृत्य प्रशिक्षण’ की पद्धति में भी मैंने बदलाव किया जिसे मैंने उचित और आवश्यक समझा। उसके बिना भरतनाट्यम का लोगों द्वारा अपनाया जाना असंभव था और मुझे अपनी गुरू का आशीर्वाद भी प्राप्त हो गया। जब उन्होंने यहां आकर मेरी कक्षा का अवलोकन किया। गुरू होम्बल का मानना था कि स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं से ही संगीत नृत्य एक अनिवार्य विषय होना चाहिए जैसा कि म.प्र. में पहले था। किन्हीं कारणोंवश बंद कर दिया गया। असल पहल तो कलाकार को ही करना है। सरकार पर सब कुछ छोड़ेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है। हां, सरकार को साथ में लेकर तो चलना ही पड़ेगा। होम्बलजी के महाप्रयाण के बाद उनके परिवार और सरकार को मिलकर इस महान विरासत के बारे में किसी प्रकल्प को आकार देना चाहिए।
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