रंग विमर्श:अस्सी पारते पं. शंकर होम्बल संजोएँ हैं खुद में स्मृतियों की अपार सम्पदा

इच्छाशक्ति के मंत्र का जाप करते हुए इस कलासाधक ने अंततः साबित कर दिया था कि कला के लिए हदों का कोई मायना नहीं है। वह समूचे विश्व में कहीं भी अपनी सुगंध, अपना पराग बिखेर सकती है। धारवाड़ (कर्नाटक) के समीप एक शैव किसान परिवार में जन्में शंकर होम्बल ने अपने कला जीवन के चढ़ते सोपानों के साथ मध्य भारत को भरतनाट्यम का जो गौरव दिया वह इसी मायने में अद्धितीय है।  

पंडित होम्बल की एक सौम्य छवि
अहिंदी भाषी परिवार और परिवेश से ताल्लुक रखते हुए भी हिंदी के प्रदेश में भरतनाट्यम नृत्य शैली का प्रचार-प्रसार कर नई पीढ़ी को अपनी थाती सौंपने वाले वे अपने किस्म के अकेले नृत्य गुरू थे। पिछले पांच दशक में उनका सांस्कृतिक पुरूषार्थ दर्जनों शिष्यों के लिए भरतनाट्यम नृत्य शैली की प्रेरणा का प्रतीक बना। निश्चय ही उम्र की चढ़ती बेल ने उनकी देह को भी थका दिया था लेकिन एक उल्लसित नर्तक का मन नासाज सेहत के बावजूद किशोर-युवा शागिर्दों के बीच लय-ताल की संगत पर मचल पड़ता। जाहिर है कि अस्सी पार के इस बुजुर्ग के पास स्मृतियों की अपार सम्पदा रही। मान-सम्मान की भी कमी नहीं। उन्हें शिखर सम्मान से नवाजने वाली मध्यप्रदेश सरकार ने भी इस मनीषी की पूछ-परख में किसी तरह की कोताही नहीं बरती। मृत्यु से चन्द लम्हे पूर्व भोपाल के सांस्कृतिक परिसर में हौले-हौले कदम-दर-कदम आगे बढ़ाते गुरू शंकर ने अपनी आमद दर्ज कराई थी- ‘‘सब गुरू की कृपा हैं, जो मैं यह सब कर पा रहा हूं। उनके संस्कारों और शक्ति की छाया आज भी मेरे साथ है’’। 

भारतीय नृत्य जगत की महान गुरू श्रीमती रूक्मणी देवी अरूण्डेल की छत्र-छाया में दीक्षित पं. होम्बल गुरू परंपरा से मिले कला के संस्कारों को जीवन की महान निधि मानते थे। धन्यता और कृतज्ञता उनके पोर-पोर से झलकती। कभी अपने इसी शिष्य पर मुग्ध होकर रूक्मणीजी ने आशीष दिया था- ‘‘कलापद्य के रूप में तुम तो भोपाल में एक लघु कलाक्षेत्र बना रहे हो।’’ सचमुच ही आज कलापद्य भरतनाट्यम नृत्य अकादेमी के कार्य और विस्तार को देखकर श्रीमती रूक्मणी देवी के आशीष को तौला जा सकता है।

भरतनाट्यम की प्रस्तुति
करते होम्बल
अपने अतीत को खुलासा करते हुए गुरूजी बताते थे- यह सुखद संयोग ही था कि किसान परिवार होने के बावजूद हमारे घर में गाना-बजाना बहुत होता था। मां को गाने में बहुत रूचि थी। हिन्दुस्तानी संगीत की शिक्षा मैंने कर्नाटक में उन्हीं की प्रेरणा से ली। नाटक वगैरह में भी भाग लिया। कई नाटकों में स्त्री पात्रों का अभिनय भी किया। 16 वर्ष की उम्र रही होगी। कला के प्रति मां ने प्रोत्साहित किया। पिताजी तो जब उन्नीस वर्ष का था, गुजर गए थे। यक्षगान में रात भर हम खड़े रहते थे, इसका वह विरोध करते थे लेकिन एक बार जब हम नाटक करके आए तो वे बड़े प्रसन्न हुए। हम धारवाड़ पहुंचे, कन्नड़ भाषा का शिक्षक बनने के लिए। इसी समय देश आज़ाद हुआ। उस दिन मैंने हिन्दी कक्षा में नाम लिखवाया। उस वक्त मेरी उम्र बीस साल की थी। बाद में मुझे चालीस रूपए पर कन्नड़ टीचर की जगह मिल गई। पर मेरा गाना कभी नहीं छूटा। नृत्य के प्रति हमारे रूझान का एक कारण है।

धारवाड़ में नृत्य की एक संस्था थी, उस संस्था में मेरी पत्नी श्रीमती गिरिजा होम्बल शिक्षिका भी थीं और कार्यक्रम भी देती थीं। जैसे एक आदमी की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है। मेरे साथ, इन्हीं का रहा। उस संस्था में मैं घूमते-घामते पहुंचा। वहां थोड़ा-थोड़ा नृत्य शुरू किया। मैं समझता हूं, एक साल या दो साल में, मैं परफार्मेन्स करने लगा। बाद में पत्नी धारवाड़ आ गई। घर वालों का इनके साथ विवाह का विरोध था, वह उन्हें नाचनेवाली समझते थे तो इन्हें लेकर चुपचाप वहां से मैं भागा और हम ग्वालियर एक मित्र के यहां आए, विवाह किया। वहां हम संयोगवश एक भद्र महिला से मिले नाम था उनका विशालाक्षी जौहरी। वह रूकमणी देवी की छोटी बहन थी। वहां विद्यालय में प्राचार्य थी। उन्होंने इनको (पत्नी) उस विद्यालय में नियमित रूप से शिक्षिका के रूप में रख लिया। इन्हें पैंतीस रूपए मिलने लगे, जीवन शुरू हुआ। श्री होम्बल बताते थे कि वे अपनी नौकरी छोड़ ही चुके थे। कलाकारों को ऐसा करना पड़ता है। ऐसा नहीं होता तो आज मैं यहां नहीं होता। अपनी लंबी कहानी सुनाते हुए वे कहते कि ऐसा कभी नहीं सोचा था। हमने जो भी किया पूरे तन-मन से किया। नृत्य में ही प्रगति करने का मेरा विचार था। उम्र चाहे जो भी हो, कभी-न-कभी ऐसे मोड़ पर कुछ-न-कुछ रास्ता मिल जाता है, तब आपको लगता है हम इसी के लिए आये है। विशालाक्षीजी पत्नी को कला क्षेत्र भेजने वाली थीं। खैर तब तक हमारा एक बेटा हो चुका था और फिर दूसरा भी। वहां एक संस्था भी खोली थी- ‘‘गिरिजा-शंकर कला केन्द्र।’’ ग्वालियर में कुल दस वर्ष रहकर हमने भरतनाट्यम का बहुत प्रचार किया। विशालाक्षीजी ने रूक्मणी देवी से कहकर मुझे कला क्षेत्र में छात्रवृत्ति भी दिलवाई और कुछ समय की हिचकिचाहट के पश्चात उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया। 

.एक नृत्य नाटिका में दशरथ
 की भूमिका
 में पंडित शंकर होम्बल
होम्बल ने बताया कि मैं पच्चीस-छब्बीस वर्ष का था तब शेष सब छात्र-छात्राएं मुझसे बहुत छोटे थे। वहां रहकर मैं भरतनाट्यम और कथकली में पूरी तरह डूब गया। कथकली के मेरे वहां गुरू थे टी.के. चन्दु पणिक्कर। मैं दिल्ली भी गया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय की संस्था में साक्षात्कार भी दिया, पर वहां मेरा मन नहीं लगा और मैं ग्वालियर लौट आया। कुछ समय बाद विशालाक्षीजी ने भोपाल आकर महारानी लक्ष्मी बाई महाविद्यालय की प्रथम प्रिसिंपल का पदभार सम्भाला और तुरन्त ही सन् 1959 में मुझे भी यहां बुलवाकर कॉलेज में असिस्टेंट म्युजिक टीचर के पद पर स्थापित कर दिया। यहां आकर मैंने धीरे-धीरे भरतनाट्यम का पाठ्यक्रम तैयार किया। सन् 1960 में मैंने अपना नृत्य केन्द्र ‘कलापद्य’ स्थापित किया। कलाक्षेत्र के अपने मन पर पड़े प्रभाव को लेकर श्री होम्बल का मानना था कि वह इतने विशाल व्यक्तित्व वाले मनीषियों का घर था, जिनकी सादगी और रूक्मणी देवी के प्रति उनकी निःस्वार्थ भक्ति और निष्ठा की छाप मेरे मन में गहरी उतरी। स्वयं रूक्मणी का व्यक्तित्व इतना भव्य था, जैसे कोई महानदेवी हो। सिर से पैर तक वह इतनी सुंदर थीं कि जब वह अभिनय करके दिखातीं थीं तो हम सब उनके हाथों और पैरों की उंगलियां ही देखते रहते थे। विशेषकर उनके द्वारा मुझे दिया गया, रामायण में दशरथ के अभिनय का निर्देशन याद है। 

रूक्मणी देवी से मैंने कला की सेव का आदर्श ग्रहण किया। यह सही है कि कलाक्षेत्र में श्रृंगार अभिनय कम होता था, पर मुझे गाना आने की वजह से खुद करने में बहुत मजा आता था। पहले जब मैं पच्चीस-पैंतीस वर्ष की आयु में था तब मैंने श्रृंगार इतना खुलकर नहीं किया। उसके बाद चालीस-पैंतालीस वर्ष की आयु तक खुलकर बताता था और अब तो अभिनय बताने में मैं ठहर ही जाता हूं। मुझे सब शिष्याएं अपनी लड़कियां ही लगती हैं। पंडितजी को इस बात का संतोष रहा कि जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री जया भादुड़ी बच्चन से लेकर शिकागो में बसी उनकी बेटी पारिजाता वर्गीश तथा प्रसिद्ध नृत्यांगना लता सिंह मुंशी, श्वेता शर्मा, रूचि जोशी, पारूल पंड्या आदि उन्हें पहले सा आदर देती रही। अपने बचपन के शहर भोपाल जब एक बार जया बच्चन आयीं तो भारत भवन के मंच से गुरू पंडित होम्बल को वहां देखकर उनका चरण स्पर्श करने दर्शक दीर्घा में गयीं और गुरूजली की कुशलता के समाचार जाने। 

होम्बल के अनुसार म.प्र. में भरतनाट्यम प्रचलित हो इस उद्देश्य से मैंने ही सर्वप्रथम हिन्दी काव्य का उपयोग किया। कहते थे चूंकि हिन्दी से मैं घनिष्ठता से जुड़ा था, इस कारण सुर, तुलसी जैसे अनेक कवियों की रचनाओं द्वारा मैं भरत नाट्यम का विस्तारपूर्वक प्रचार करने में सफल रहा। ‘नृत्य प्रशिक्षण’ की पद्धति में भी मैंने बदलाव किया जिसे मैंने उचित और आवश्यक समझा। उसके बिना भरतनाट्यम का लोगों द्वारा अपनाया जाना असंभव था और मुझे अपनी गुरू का आशीर्वाद भी प्राप्त हो गया। जब उन्होंने यहां आकर मेरी कक्षा का अवलोकन किया। गुरू होम्बल का मानना था कि स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं से ही संगीत नृत्य एक अनिवार्य विषय होना चाहिए जैसा कि म.प्र. में पहले था। किन्हीं कारणोंवश बंद कर दिया गया। असल पहल तो कलाकार को ही करना है। सरकार पर सब कुछ छोड़ेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है। हां, सरकार को साथ में लेकर तो चलना ही पड़ेगा। होम्बलजी के महाप्रयाण के बाद उनके परिवार और सरकार को मिलकर इस महान विरासत के बारे में किसी प्रकल्प को आकार देना चाहिए। 

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

विनय उपाध्याय
SocialTwist Tell-a-Friend

 
Design by Wordpress Theme | Bloggerized by Free Blogger Templates | coupon codes