बेसाख्ता, बेशुमार और बहुरंगी रचने के बावजूद किसी लेखक की कोई एक कृति उसकी शख्सियत का पर्याय बन जाती है। असगर वजाहत की शोहरत और मकबूलियत के साथ भी कुछ ऐसा ही संयोग चस्पा रहा। कहानी, उपन्यास, नाटक और सिनेमा टीवी की पटकथाएं लिखने वाले अपने किस्म के इस धुनी कलमकार को आज भारत और सरहद पार के मुल्कों में जिस एक कृति ने बुलंदी पर पहुंचाया वो है- ‘जिन लाहौर नई देख्या, ओ जन्म्याई नई’।
असगर वजाहत |
साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाता यह नाटक, देश के विभाजन की मानवीय त्रासदी और इंसानी रिश्तों पर सौहार्द्र की सनातन आकांक्षा की अनुगूंज पैदा करता है। ‘लाहौर’ की इस लहर से भारत का तो शायद ही कोई सूबा बचा हो। पच्चीसों नाट्य निर्देशकों ने इसे मंचन के लिए चुना और सैकड़ों बार हजारों-लाखों दर्शकों ने इसे देखा-सराहा। हबीब तनवीर के ‘चरणदास’ की तरह असगर वजाहत के ‘लाहौर’ की कुण्डली में भी अपार यश और लोकप्रियता लिखी है। तमाम विचलनों के इस दौर में ऐसी बेहिसाब सार्वजनिक अभिस्वीकृति कम लेखकों के हिस्से आई है। बहरहाल, अपने इसी बहुमंचित-बहुचर्चित नाटक की एक और प्रस्तुति के सिलसिले में असगर वजाहत का पिछले दिनों भोपाल आना हुआ। रंग समूह ‘प्रयोग’ ने उन्हें अपने इस प्रयोग की दसवीं पेशकश के बहाने आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया था। निर्देशक सतीश मेहता की मनुहार का वजाहत ने मान रखा। मनोयोग से मंचन देखा। भारत भवन में दर्शकों से मुखातिब हुए तो दो बातें कीं और मीडिया के सवालों पर अपनी तबीयत के मुताबिक तार्किक संवाद किया।
असगर वजाहत उन चंद लेखकों में शुमार किए जा सकते हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के अलावा अनेक ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श किया है। उनका मानना है, कि सियासत ने जब आज पूरे मुल्क को ‘अंधेर नगरी’ बना दिया है, तब एक सच्चे लेखक की बेचैनी भला क्या हो सकती है? लेकिन बकौल उन्हीं के - ‘बुद्धिजीवियों की भूमिका संतोषजनक नहीं है। या तो वे भ्रष्ट हो गए हैं या उन्हें साइड लाइन कर दिया गया है।’ बताते हैं अलीगढ़ से वे दिल्ली पत्रकारिता के लिए आए थे। हिन्दी में स्नातकोत्तर थे। पत्रकारिता तो मूल पेशा नहीं बन पाया, मगर लेखनी ने वो कमाल किया कि अदब की दुनिया में वे अलग से पहचाने गए। जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय नई दिल्ली में
अध्यापकी की। सत्तर के दशक में कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। पहली कहानी बनी- ‘वह बिक गई’। उसके बाद संग्रह आए-‘दिल्ली पहुंचना है’ ‘स्विमिंग पूल’ ‘अब कहां कुछ’। नाटक लिखना शुरू किया तो ‘लाहौर’ से लेकर ‘फिरंगी लौट आए’ ‘इन्ना की आवाज’ ‘वीरगति’, ‘सनिधा’ और ‘अकी’ तक बेसाख्ता लिखते रहे। उपन्यास भी रचे जिनमें ‘रात में जाने वाले’ और ‘सात आसमान’ काफी चर्चा में रहे। लेकिन जैसा कि उनकी शख्सियत के बारे में शुरू में कहा गया, वे बहुआयामी लेखनी के धनी हैं। सो, वृत्त चित्र ‘गजल की कहानी’ हो या फिर टी.वी. धारावाहिक ‘बूंद-बूंद’, लेखनी के इन सांचों में भी बखूबी ढलने का माद्दा रखते हैं वजाहत। एक पोशीदा पहलू यह भी कि हंगरी (बुडापेस्ट) में उनके चित्रों की दो बार नुमाइश भी हो चुकी है। देश-विदेश में उन्हें व्याख्यानों के लिए भी बुलाया जाता रहा। लेकिन इस सारी विलक्षणता के बावजूद वे साहित्य की दलगत राजनीति से बेहद नाराज हैं, जिसने सही मूल्यांकन से तौबा कर आज अबौद्धिक और घटिया रूख अपना लिया है।
बहरहाल इस सब उठा-पटक के चलते वे इस बात पर संतोष जताते हैं कि उनके लिखे-कहे को पाठक-श्रोता ने कभी खारिज नहीं किया। भोपाल में नाटक ‘लाहौर’ के शताधिक प्रयोगों का जिक्र छिड़ा, तो उन्होंने सूचना दी कि जल्दी ही यह नाटक सिनेमा की शक्ल लेगा। वजाहत की धारणा है कि नाटक की कसौटी मंचन है। किताबी दायरे में वह बेमौत मारा जाता है। ‘लाहौर- की किस्मत में शोहरत की रोशनी लिखी थी, वरना राजनीति और समाज पर कटाक्ष करते मेरे ही एक और नाटक ‘अकी’ को प्रसिद्धि के पंख नहीं मिले। वजह कि इस नाटक को मंचित करने में दिलचस्पी नहीं ली किसी ने। दुर्भाग्य से आज नाटक करने वालों का साहस भी चुक गया हैं। आज देखें कि हबीब तनवीर को अपने ‘साहस’ की कितनी बार कीमतें चुकानी पड़ीं।
असगर वजाहत की यह चिंता भी गौरतलब है कि हिन्दी प्रदेशों में साहित्य और संस्कृति का दृश्य काफी दबा हुआ है। सांस्कृतिक जागरूकता और आंदोलन के अभाव में हिन्दी प्रदेश एक तरह से चेतना शूल्य हो गए हैं। इस शून्य को कैसे तोड़ा जाए यह एक बड़ा सवाल है। देश में असहिष्णुता का जो माहौल है उसका असर नाटक पर भी पड़ रहा है। असगर बताते हैं कि कुछ साल पहले जयपुर में फिल्म अभिनेता ए.के. हंगल ने बड़े मार्के की बात कही। हंगल के अनुसार ‘इप्टा’ जैसे सक्रिय नाट्य अभियान की सांसें अगर रूक गई तो उसके पीछे कारण प्रतिरोध के खिलाफ भीतर के जुनून का ठंडा पड़ जाना है। जब तक सृजनधर्मियों के पास कोई आदर्श, कोई सपना, कोई लहर नहीं है, उनकी कलाओं में जान नहीं पैदा हो सकती। रही बात अन्य संस्थाओं की तो बहुतों के ‘अपने’ एजेंडे तय है।
असगर वजाहत हिन्दी में अच्छे नाटक लिखे जाने की पैरवी करते हैं, जैसे कि मराठी, बांग्ला, गुजराती या कन्नड़ में हैं, लेकिन हिन्दी के बीमारू प्रदेश नाटकों की कमी पर शर्म भी नहीं करते। भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता उन्माद में अक्सर डूबे रहने वाले ये बीमारू राज्य क्या नाटक लिख सकते हैं। हिन्दी का दुर्भाग्य यह है कि यह इतनी बड़ी भाषा है और अगर इसकी बड़ी संस्कृति है, तो इसको बचाने, पालने-पोसने तथा आगे बढ़ाने की कोई चिंता क्यों नहीं करता? लगता है हिन्दी नाटककार एक विलुप्त होती प्रजाति है।
वजाहत कहते हैं- मेरे पास एक पूरा नाटक लिखने की रूपरेखा है, मैं जानता हूं कि एक नाटक को अगर लिख दिया तब भी यह मंचित नहीं हो पाएगा। इसलिए केवल पत्रिकाओं में नाटक छपवाने के लिए लिखना बेकार है। सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित यह नाटक एक ग्रीक कथानक से प्रभावित है। अब ऐसे हालातों में भी हम हिन्दी नाटकों की दशा और दिशा पर निरर्थक बहस करते रहें, यह ठीक नहीं।
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