रंगमंच की दुनिया की एक नई और ज़रूरी पत्रिका 'रंग संवाद'

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वनमाली सृजन पीठ,भोपाल की सम्वाद पत्रिका के रूप में 'रंग संवाद' नामक त्रैमासिक पत्रिका ने अपने कुछ अंकों में ही भुत 'रंग संवाद' ने गहरी प्रवृति का काम करके दिखाया है. ख़ास तौर पर रंगमंच की दुनिया के आलेखों और ख़बरों को समेकित रूप प्रदान करती हुए ये पत्रिका पाठकों के बीच बहुत गहरी पेठ बना चुकी है. अभीतक पत्रिका का कोई शुल्क नियत नहीं किया है शायद ये पीठ द्वारा ही फिलहाल संचालित की जा रही है .ये अंक हाल ही निकला अप्रैल-जून अंक है.जिसे प्रख्यात रंगकर्मी बादल सरकार,फिल्म निर्माता मणि कॉल,'जनता पागल हो गयी है' के रचियता कामरेड शिवराम,प्रगतिशील पत्रिका वसुधा के सम्पादक कमला प्रसाद और फिल्म  निर्माता और चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन को समर्पित करके निकला गया है. आवरण चित्र से ही आकर्षित करने वाला ये अंक आखिर तक पाठक को बांध कर रखता है.कला जगत में नई रचनात्मकता के मायने जैसे शीर्षक से लिखी गयी संतोष चौबे की सम्पादकीय से लेकर रंगमंच की बदलती हुई भाषा पर बादल सरकार का उदबोधन बहुत ज्ञानवर्धक है.कला समीक्षक विनय उपाध्याय के संपादकत्व में ही निकालने वाली पत्रिका ' कला समय' में पूर्व में प्रकाशित नुक्कड़ नाटक के प्रखर हस्ताक्षर शिवराम से 'बनास' पत्रिका के सम्पादक पल्लव की लम्बी बातचीत  का पुन: प्रकाशन बहुत ज़रूरी साबित जान पड़ता है.



कुल मिलाकर अंक में नाटक,कविता,रंगमंच के इर्दगिर्द बहुत सी संग्रहनीय सामग्री इसमें समाहित की गयी है.रंगपटल पर आँचल पसारती कविता नामक विनय उपाध्याय का आलेख,संजय मेहता की डायरी,हरिओम राजोरिया की दो बड़ी कवितायेँ के साथ ही इस अंक में मक़बूल फ़िदा हुसैन पर स्मृति शेष के बहाने प्रभू जोशी की शब्दांजली पढ़ने योग्य है.इसी  तरह लोकगायक प्रहलाद सिंह तिपनिया और शुभा मुदगल से संबद्द भी आलेख प्रकाशित अंक में समाहित किए गए हैं. एक और ज़रूरी आलेख बाघेरी लोक नाट्य के बारे में है जिसे हीरेन्द्र सिंह ने लिखा है.अंत में पाठकों के पत्रों के अलावा हाल ही भोपाल में दी गए वनमाली कथा सामान की विस्तृत रिपोर्ट भे पढी जा सकती है.और भी बहुत कुछ है जो अंक मिलाने पर आप खुद समझ और पढ़ सकेंगे .इस साधुवाद योग्य सम्पादन और प्रबंधन के लिए वनमाली सृजन पीठ को बहुत सा आभार और आगे के लिए शुभकामनाएं.

रंगमंच की दुनिया की एक नई और ज़रूरी पत्रिका

'रंग संवाद'

अंक हेतु संपर्क करिएगा.

प्रधान सम्पादक

संतोष चौबे
सम्पादक
विनय उपाध्याय
vinay.srujan@gmail.com

वनमाली सृजन पीठ,
22,ई-7,अरेरा कोलोनी-भोपाल-16 (मध्य प्रदेश),फोन-0755-2423806,
मोबाईल-09826392428,ई-मेल-vanmalisrijanpeeth@hgmail.com

‘‘मैं समर्पण रियाज़ और गुरू पंरपरा के उसी आदर्श की पुनर्प्रतिष्ठा करना चाहता हूं''-ध्रुपद गायक आशीष सांस्कृत्यायन

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आशीष सांस्कृत्यायन जी 
दौलत की दुहाई देने वाले अनेक पश्चिमी मुल्कों में आज हिन्दुस्तानी ध्रुपद संगीत बेचैन और बुझे दिलों के लिए सुकून का मरहम बन गया है। लेकिन जीवन के जिस आध्यात्मिक आनंद की तलाश में आज पराए वतन के वाशिंदों का कारवां चल निकला है, हमारा भारतीय मानस अभी उससे कोसों दूर है। इसी सन्नाटे को भरने का संकल्प लेकर युवा संगीतकारों के बीच रहने का मैंने मन बनाया है। ध्रुपद केन्द्र का गुरू बनकर मैं एक अर्थ में अपने ‘गुरू ऋण’ की अदायगी ही करूंगा। 

इस कृतज्ञता और उम्मीद भरे वक्तव्य के साथ अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ध्रुपद गायक आशीष सांस्कृत्यायन ने लगभग दो दशकों बाद अपनी गुरू भूमि (मध्यप्रदेश) में आमद दर्ज की है। ध्रुपद की वैश्विक छवि और भारतीय मानस से जुड़े अनेक पहलुओं पर आशीष ने इस लेखक के साथ लम्बी बातचीत में अपने अनुभव साझा किए। गौर करने का पहलू यह है कि हाल ही में म.प्र. शासन संस्कृति विभाग ने ध्रुपद केन्द्र के गुरू और निदेशक हेतु इस प्रौढ़ गायक का चयन किया है। दिलचस्प संयोग यह है कि आशीष सांस्कृत्यायन इसी ध्रुपद केन्द्र में नब्बे के दशक में विद्यार्थी रह चुके है और उन्होंने बाकायदा चार वर्षों तक ध्रुपद की डागरवाणी की गुरू-शिष्य परंपरा के तहत तालीम ली। 

आशीष कहते हैं - ‘‘मैं समर्पण रियाज़ और गुरू पंरपरा के उसी आदर्श की पुनर्प्रतिष्ठा करना चाहता हूं जिसने हम जैसे ध्रुपद गायकों की शख्सियत को गढ़ा’’। लगभग डेढ़ दशकों में दुनिया के कई पश्चिमी देशों की सैर कर चुके इस प्रतिभाशील संगीतकार को भरोसा है कि वे इस नई जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह कर पाएंगे। आशीष को प्रतीक्षा है होनहार-उत्साही शिष्यों की जिन्हें वे देशभर से चुनना चाहते हैं। ध्रुपद केन्द्र के इस नवागत निदेशक का मानना है कि चार बरस का प्रशिक्षण देकर इन गायकों को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता हमें उनके प्रोत्साहन और परवरिश के लिए भी मौके और मंच उपलब्ध कराने होंगे। मेरी कोशिश होगी कि मेरे अंतरराष्ट्रीय संपर्कों का लाभ ध्रुपद केन्द्र के प्रशिक्षित विद्यार्थियों को मिले। संस्कृति विभाग को भी ध्रुपद समारोह आयोजित करने का प्रस्ताव दिया जायेगा। मैं एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहता हूँ जिससे ध्रुपद केन्द्र ‘ग्लोबल नेटवर्क’ से जुड़े। उन्होंने कहा कि नई राहें खोलना मेरा दायित्व होगा। 

उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन और ज़िया फरीदद्दीन डागर सहित पांच डागर गुरूओं से ध्रुपद की व्याकरण सम्मत बारीकियों की तालीम लेकर देश-दुनिया की सैर कर चुके आशीष सांस्कृत्यायन ने बताया कि यूरोप जैसे पश्चिम के मुल्क में ध्रुपद सीखने और सुनने वालों की संख्या में बेइंतहा इज़ाफा हुआ है। दरअसल अब वहां के लोग अध्यात्म की शरण में जाना चाहते हैं। शांति और सुकून चाहते है। ध्रुपद संगीत से बढ़िया भला क्या विकल्प हो सकता है। इस संगीत की खूबी है शुद्धता। इस शुद्धता के लिए व्याकरण एक पैमाना है। ग्रामर का सहारा लेकर तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। ध्रुपद सुर धीरे-धीरे बढ़त लेते हैं। यह धीमी गति ही अध्यात्मक के निकट या अद्धैत की ओर ले जाती है। 

आशीष सांस्कृत्यायन जी 
आशीष ने कहा कि दौलत को ही सब कुछ मानने वाले कई मुल्कों में आज ध्रुपद बेचैन और बुझे दिलों के लिए सुकून का मरहम बन गया है। ध्रुपद की प्रामाणिक जानकारियों के साथ तार्किक विश्लेषण करने वाले अत्यंत प्रज्ञावान और मृदुभाषी आशीष सांस्कृत्यायन की परवरिश मुंबई में हुई लेकिन यायावरी ही उन्हें रास आती रही है। हर बार ध्रुपद का चिंतन करते हुए किसी नए निष्कर्ष को नई रसिक बिरादरी में बांटने का कौतुहल उनके विचार और व्यक्तित्व में बहुत साफ पढ़ा जा सकता है। यह दक्षता और कौशल उन्होंने सतत अध्ययन-संवाद तथा समावेशी मानसिकता से अर्जित किए हैं। उनकी पत्नी साउथ कोरियन है - किम सांग आह। पियानो बजाती है। 

अपना तजुर्बा सुनाते हुए पचास वर्षीय आशीष ने बताया कि वे पिछले पन्द्रह-बीस सालों में अनेक विदेशियों के संपर्क में आए। पता चला कि धन-दौलत, ऐश्वर्य और सुख की चरम कामनाओं में लीन रहने वाले ये धनाढ्य अब जीवन के बुनियादी आनंद की तलाश कर रहे हैं। जबकि भारत में इस समय उपभोक्तावाद चरम पर है। हमारे यहां आज शास्त्रीय कलाओं के प्रति कच्ची समझ है। सोचने-विचारने का दायरा संकीर्ण है। विदेशी संगीतकार और श्रोताओं की रूचि और समझ वैश्विक होती है। वे हर तरह की संगीत धाराओं और प्रयोगों में रूझान रखते हैं इसलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराइयों को भी उन्होंने ठीक से समझा है। ध्रुपद जैसी कठिन और शुद्धता का विशेष आग्रह रखने वाली विधा को भी दूसरे देशों ने उसके पूरे अनुशासन के साथ आत्मसात किया है। 

सांस्कृत्यायन ने संगीत के संरक्षण के सवाल पर कहा कि आज़ादी के पहले भारत में कलाओं और कलाकारों को जो राज्याश्रय प्राप्त था आज उसकी बहुत कमी है। हमारे यहां सरकार, कार्पोरेट और समर्थ व्यक्तियों से जितनी अपेक्षा बनती है, उस तुलना में तो बहुत कम हासिल हो पा रहा है। विदेश में क्लासिकल कॉन्सर्ट हजारों की संख्या में हो रहे हैं। बहुत अनुशासित, पूर्व नियोजित। उत्कृष्टता से कोई समझौता नहीं। कोई माफिया नहीं, षडयंत्र नहीं। कलाकारों और आयोजक के बीच कोई अतिरिक्त जोड़-तोड़ का रिश्ता नहीं। गुणवत्ता ही सर्वोपरि है। 

आशीष बताते है कि यूरोप में कला संस्थानों का प्रबंधन पेशेवर कला-संस्कृति की तालीम प्राप्त काबिल लोगों के अधिकार में होता हैं। जरूरी नहीं कि वे खुद किसी विधा के कलाकार हों लेकिन कला-संस्कृति की गतिविधियां चलाने की प्रशासनिक दक्षता उनके पास होती है। हमें भारत में भी यही वातावरण बनाने की जरूरत है। लेकिन आज भारतीय कलाओं विशेषकर संगीत में साधना, धीरज, संयम और समर्पण की जगह शोहरत और होड़ ने ले ली है। ब्रोशर में महान गुरूओं का नाम देना कलाकारों के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है, भले ही उनके करीब पांच-दस मिनिट का रियाज़ भी नसीब न हुआ हो। इसीलिए आगे जाकर कलाकारों में कुण्ठाएं पनपती है। आशीष सांस्कृत्यायन ने इस विसंगति के बीच तर्क दिया कि हमारे कलाकारों को ऊंचे संकल्प लेकर संघर्ष के मैदान में कूदना पढ़ेगा। खुद के फन को, शख्सियत को कुछ इस तरह मांजना होगा कि उसकी चमक के साथ खरेपन की शिनाख्त साफतौर पर की जा सके।

आशीष ने खुद अपनी मिसाल दी- ‘‘बारहवीं पास करने के बाद मैंने डेंटिस्ट बनना चाहा लेकिन राह बदली और गणित विषय लेकर स्नातकोत्तर हो गया। फिर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का कोर्स कर एक सरकारी संस्थान में रिसर्च स्कॉलर हो गया। इस बीच सितार बजाने का शौक चढ़ा। मगर मेरे भीतर कुछ ऐसी हलचल हुई कि नौकरी छोड़कर ध्रुपद सीखने भोपाल चला आया। चार साल ध्रुपद केन्द्र में उस्ताद (फरीदुद्दीन डागर) से सीखा। भोपाल में रहा लेकिन इत्तफाक देखिए पिछले बीस सालों में एक भी समारोह में मेरा गायन नहीं हुआ। .....और अब इसी ध्रुपद केन्द्र में बतौर गुरू मेरी आमद हुई है। दरअसल मैंने कभी अपना मनोबल गिरने नहीं दिया। आशीष बताते है कि छोटे-छोटे प्रयास और सक्रियताएं ही बड़े मुकाम तक पहुंचाते हैं। आज मेरे पास ध्रुपद के क्षेत्र में काम करने का एक बड़ा वैश्विक नेटवर्क है लेकिन मैं अपने देश के नए कलाकारों से उसका रिश्ता बनाना चाहता हूं।

आशीष को उम्मीद है कि वे भोपाल में ध्रुपद केन्द्र के नए बैच को प्रशिक्षण देना शुरू कर देंगे। दस छात्रों का चयन देश भर से आमंत्रित आवेदन के आधार पर होगा जिन्हें प्रतिमाह चार वर्ष तक रूपए दो हजार का वजीफा (स्कॉलरशिप) दिया जाएगा। ध्रुपद केन्द्र के लिए नए भवन की तलाश जारी है। सारे विद्यार्थी उसी भवन में गुरू के साथ रहेंगे। विद्यार्थियों की उम्र के बंधन को योग्यता के अनुसार आशीष शिथिल करना चाहते हैं जो फिलहाल 14 से 30 वर्ष नियत की गई है। 

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

विनय उपाध्याय

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रंग विमर्श:अस्सी पारते पं. शंकर होम्बल संजोएँ हैं खुद में स्मृतियों की अपार सम्पदा

इच्छाशक्ति के मंत्र का जाप करते हुए इस कलासाधक ने अंततः साबित कर दिया था कि कला के लिए हदों का कोई मायना नहीं है। वह समूचे विश्व में कहीं भी अपनी सुगंध, अपना पराग बिखेर सकती है। धारवाड़ (कर्नाटक) के समीप एक शैव किसान परिवार में जन्में शंकर होम्बल ने अपने कला जीवन के चढ़ते सोपानों के साथ मध्य भारत को भरतनाट्यम का जो गौरव दिया वह इसी मायने में अद्धितीय है।  

पंडित होम्बल की एक सौम्य छवि
अहिंदी भाषी परिवार और परिवेश से ताल्लुक रखते हुए भी हिंदी के प्रदेश में भरतनाट्यम नृत्य शैली का प्रचार-प्रसार कर नई पीढ़ी को अपनी थाती सौंपने वाले वे अपने किस्म के अकेले नृत्य गुरू थे। पिछले पांच दशक में उनका सांस्कृतिक पुरूषार्थ दर्जनों शिष्यों के लिए भरतनाट्यम नृत्य शैली की प्रेरणा का प्रतीक बना। निश्चय ही उम्र की चढ़ती बेल ने उनकी देह को भी थका दिया था लेकिन एक उल्लसित नर्तक का मन नासाज सेहत के बावजूद किशोर-युवा शागिर्दों के बीच लय-ताल की संगत पर मचल पड़ता। जाहिर है कि अस्सी पार के इस बुजुर्ग के पास स्मृतियों की अपार सम्पदा रही। मान-सम्मान की भी कमी नहीं। उन्हें शिखर सम्मान से नवाजने वाली मध्यप्रदेश सरकार ने भी इस मनीषी की पूछ-परख में किसी तरह की कोताही नहीं बरती। मृत्यु से चन्द लम्हे पूर्व भोपाल के सांस्कृतिक परिसर में हौले-हौले कदम-दर-कदम आगे बढ़ाते गुरू शंकर ने अपनी आमद दर्ज कराई थी- ‘‘सब गुरू की कृपा हैं, जो मैं यह सब कर पा रहा हूं। उनके संस्कारों और शक्ति की छाया आज भी मेरे साथ है’’। 

भारतीय नृत्य जगत की महान गुरू श्रीमती रूक्मणी देवी अरूण्डेल की छत्र-छाया में दीक्षित पं. होम्बल गुरू परंपरा से मिले कला के संस्कारों को जीवन की महान निधि मानते थे। धन्यता और कृतज्ञता उनके पोर-पोर से झलकती। कभी अपने इसी शिष्य पर मुग्ध होकर रूक्मणीजी ने आशीष दिया था- ‘‘कलापद्य के रूप में तुम तो भोपाल में एक लघु कलाक्षेत्र बना रहे हो।’’ सचमुच ही आज कलापद्य भरतनाट्यम नृत्य अकादेमी के कार्य और विस्तार को देखकर श्रीमती रूक्मणी देवी के आशीष को तौला जा सकता है।

भरतनाट्यम की प्रस्तुति
करते होम्बल
अपने अतीत को खुलासा करते हुए गुरूजी बताते थे- यह सुखद संयोग ही था कि किसान परिवार होने के बावजूद हमारे घर में गाना-बजाना बहुत होता था। मां को गाने में बहुत रूचि थी। हिन्दुस्तानी संगीत की शिक्षा मैंने कर्नाटक में उन्हीं की प्रेरणा से ली। नाटक वगैरह में भी भाग लिया। कई नाटकों में स्त्री पात्रों का अभिनय भी किया। 16 वर्ष की उम्र रही होगी। कला के प्रति मां ने प्रोत्साहित किया। पिताजी तो जब उन्नीस वर्ष का था, गुजर गए थे। यक्षगान में रात भर हम खड़े रहते थे, इसका वह विरोध करते थे लेकिन एक बार जब हम नाटक करके आए तो वे बड़े प्रसन्न हुए। हम धारवाड़ पहुंचे, कन्नड़ भाषा का शिक्षक बनने के लिए। इसी समय देश आज़ाद हुआ। उस दिन मैंने हिन्दी कक्षा में नाम लिखवाया। उस वक्त मेरी उम्र बीस साल की थी। बाद में मुझे चालीस रूपए पर कन्नड़ टीचर की जगह मिल गई। पर मेरा गाना कभी नहीं छूटा। नृत्य के प्रति हमारे रूझान का एक कारण है।

धारवाड़ में नृत्य की एक संस्था थी, उस संस्था में मेरी पत्नी श्रीमती गिरिजा होम्बल शिक्षिका भी थीं और कार्यक्रम भी देती थीं। जैसे एक आदमी की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है। मेरे साथ, इन्हीं का रहा। उस संस्था में मैं घूमते-घामते पहुंचा। वहां थोड़ा-थोड़ा नृत्य शुरू किया। मैं समझता हूं, एक साल या दो साल में, मैं परफार्मेन्स करने लगा। बाद में पत्नी धारवाड़ आ गई। घर वालों का इनके साथ विवाह का विरोध था, वह उन्हें नाचनेवाली समझते थे तो इन्हें लेकर चुपचाप वहां से मैं भागा और हम ग्वालियर एक मित्र के यहां आए, विवाह किया। वहां हम संयोगवश एक भद्र महिला से मिले नाम था उनका विशालाक्षी जौहरी। वह रूकमणी देवी की छोटी बहन थी। वहां विद्यालय में प्राचार्य थी। उन्होंने इनको (पत्नी) उस विद्यालय में नियमित रूप से शिक्षिका के रूप में रख लिया। इन्हें पैंतीस रूपए मिलने लगे, जीवन शुरू हुआ। श्री होम्बल बताते थे कि वे अपनी नौकरी छोड़ ही चुके थे। कलाकारों को ऐसा करना पड़ता है। ऐसा नहीं होता तो आज मैं यहां नहीं होता। अपनी लंबी कहानी सुनाते हुए वे कहते कि ऐसा कभी नहीं सोचा था। हमने जो भी किया पूरे तन-मन से किया। नृत्य में ही प्रगति करने का मेरा विचार था। उम्र चाहे जो भी हो, कभी-न-कभी ऐसे मोड़ पर कुछ-न-कुछ रास्ता मिल जाता है, तब आपको लगता है हम इसी के लिए आये है। विशालाक्षीजी पत्नी को कला क्षेत्र भेजने वाली थीं। खैर तब तक हमारा एक बेटा हो चुका था और फिर दूसरा भी। वहां एक संस्था भी खोली थी- ‘‘गिरिजा-शंकर कला केन्द्र।’’ ग्वालियर में कुल दस वर्ष रहकर हमने भरतनाट्यम का बहुत प्रचार किया। विशालाक्षीजी ने रूक्मणी देवी से कहकर मुझे कला क्षेत्र में छात्रवृत्ति भी दिलवाई और कुछ समय की हिचकिचाहट के पश्चात उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया। 

.एक नृत्य नाटिका में दशरथ
 की भूमिका
 में पंडित शंकर होम्बल
होम्बल ने बताया कि मैं पच्चीस-छब्बीस वर्ष का था तब शेष सब छात्र-छात्राएं मुझसे बहुत छोटे थे। वहां रहकर मैं भरतनाट्यम और कथकली में पूरी तरह डूब गया। कथकली के मेरे वहां गुरू थे टी.के. चन्दु पणिक्कर। मैं दिल्ली भी गया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय की संस्था में साक्षात्कार भी दिया, पर वहां मेरा मन नहीं लगा और मैं ग्वालियर लौट आया। कुछ समय बाद विशालाक्षीजी ने भोपाल आकर महारानी लक्ष्मी बाई महाविद्यालय की प्रथम प्रिसिंपल का पदभार सम्भाला और तुरन्त ही सन् 1959 में मुझे भी यहां बुलवाकर कॉलेज में असिस्टेंट म्युजिक टीचर के पद पर स्थापित कर दिया। यहां आकर मैंने धीरे-धीरे भरतनाट्यम का पाठ्यक्रम तैयार किया। सन् 1960 में मैंने अपना नृत्य केन्द्र ‘कलापद्य’ स्थापित किया। कलाक्षेत्र के अपने मन पर पड़े प्रभाव को लेकर श्री होम्बल का मानना था कि वह इतने विशाल व्यक्तित्व वाले मनीषियों का घर था, जिनकी सादगी और रूक्मणी देवी के प्रति उनकी निःस्वार्थ भक्ति और निष्ठा की छाप मेरे मन में गहरी उतरी। स्वयं रूक्मणी का व्यक्तित्व इतना भव्य था, जैसे कोई महानदेवी हो। सिर से पैर तक वह इतनी सुंदर थीं कि जब वह अभिनय करके दिखातीं थीं तो हम सब उनके हाथों और पैरों की उंगलियां ही देखते रहते थे। विशेषकर उनके द्वारा मुझे दिया गया, रामायण में दशरथ के अभिनय का निर्देशन याद है। 

रूक्मणी देवी से मैंने कला की सेव का आदर्श ग्रहण किया। यह सही है कि कलाक्षेत्र में श्रृंगार अभिनय कम होता था, पर मुझे गाना आने की वजह से खुद करने में बहुत मजा आता था। पहले जब मैं पच्चीस-पैंतीस वर्ष की आयु में था तब मैंने श्रृंगार इतना खुलकर नहीं किया। उसके बाद चालीस-पैंतालीस वर्ष की आयु तक खुलकर बताता था और अब तो अभिनय बताने में मैं ठहर ही जाता हूं। मुझे सब शिष्याएं अपनी लड़कियां ही लगती हैं। पंडितजी को इस बात का संतोष रहा कि जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री जया भादुड़ी बच्चन से लेकर शिकागो में बसी उनकी बेटी पारिजाता वर्गीश तथा प्रसिद्ध नृत्यांगना लता सिंह मुंशी, श्वेता शर्मा, रूचि जोशी, पारूल पंड्या आदि उन्हें पहले सा आदर देती रही। अपने बचपन के शहर भोपाल जब एक बार जया बच्चन आयीं तो भारत भवन के मंच से गुरू पंडित होम्बल को वहां देखकर उनका चरण स्पर्श करने दर्शक दीर्घा में गयीं और गुरूजली की कुशलता के समाचार जाने। 

होम्बल के अनुसार म.प्र. में भरतनाट्यम प्रचलित हो इस उद्देश्य से मैंने ही सर्वप्रथम हिन्दी काव्य का उपयोग किया। कहते थे चूंकि हिन्दी से मैं घनिष्ठता से जुड़ा था, इस कारण सुर, तुलसी जैसे अनेक कवियों की रचनाओं द्वारा मैं भरत नाट्यम का विस्तारपूर्वक प्रचार करने में सफल रहा। ‘नृत्य प्रशिक्षण’ की पद्धति में भी मैंने बदलाव किया जिसे मैंने उचित और आवश्यक समझा। उसके बिना भरतनाट्यम का लोगों द्वारा अपनाया जाना असंभव था और मुझे अपनी गुरू का आशीर्वाद भी प्राप्त हो गया। जब उन्होंने यहां आकर मेरी कक्षा का अवलोकन किया। गुरू होम्बल का मानना था कि स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं से ही संगीत नृत्य एक अनिवार्य विषय होना चाहिए जैसा कि म.प्र. में पहले था। किन्हीं कारणोंवश बंद कर दिया गया। असल पहल तो कलाकार को ही करना है। सरकार पर सब कुछ छोड़ेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है। हां, सरकार को साथ में लेकर तो चलना ही पड़ेगा। होम्बलजी के महाप्रयाण के बाद उनके परिवार और सरकार को मिलकर इस महान विरासत के बारे में किसी प्रकल्प को आकार देना चाहिए। 

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

विनय उपाध्याय
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असगर वजाहत की शोहरत और मकबूलियत के साथ


बेसाख्ता, बेशुमार और बहुरंगी रचने के बावजूद किसी लेखक की कोई एक कृति उसकी शख्सियत का पर्याय बन जाती है। असगर वजाहत की शोहरत और मकबूलियत के साथ भी कुछ ऐसा ही संयोग चस्पा रहा। कहानी, उपन्यास, नाटक और सिनेमा टीवी की पटकथाएं लिखने वाले अपने किस्म के इस धुनी कलमकार को आज भारत और सरहद पार के मुल्कों में जिस एक कृति ने बुलंदी पर पहुंचाया वो है- ‘जिन लाहौर नई देख्या, ओ जन्म्याई नई’।     

असगर वजाहत
साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाता यह नाटक, देश के विभाजन की मानवीय त्रासदी और इंसानी रिश्तों पर सौहार्द्र की सनातन आकांक्षा की अनुगूंज पैदा करता है। ‘लाहौर’ की इस लहर से भारत का तो शायद ही कोई सूबा बचा हो। पच्चीसों नाट्य निर्देशकों ने इसे मंचन के लिए चुना और सैकड़ों बार हजारों-लाखों दर्शकों ने इसे देखा-सराहा। हबीब तनवीर के ‘चरणदास’ की तरह असगर वजाहत के ‘लाहौर’ की कुण्डली में भी अपार यश और लोकप्रियता लिखी है। तमाम विचलनों के इस दौर में ऐसी बेहिसाब सार्वजनिक अभिस्वीकृति कम लेखकों के हिस्से आई है। बहरहाल, अपने इसी बहुमंचित-बहुचर्चित नाटक की एक और प्रस्तुति के सिलसिले में असगर वजाहत का पिछले दिनों भोपाल आना हुआ। रंग समूह ‘प्रयोग’ ने उन्हें अपने इस प्रयोग की दसवीं पेशकश के बहाने आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया था। निर्देशक सतीश मेहता की मनुहार का वजाहत ने मान रखा। मनोयोग से मंचन देखा। भारत भवन में दर्शकों से मुखातिब हुए तो दो बातें कीं और मीडिया के सवालों पर अपनी तबीयत के मुताबिक तार्किक संवाद किया।

असगर वजाहत उन चंद लेखकों में शुमार किए जा सकते हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के अलावा अनेक ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श किया है। उनका मानना है, कि सियासत ने जब आज पूरे मुल्क को ‘अंधेर नगरी’ बना दिया है, तब एक सच्चे लेखक की बेचैनी भला क्या हो सकती है? लेकिन बकौल उन्हीं के - ‘बुद्धिजीवियों की भूमिका संतोषजनक नहीं है। या तो वे भ्रष्ट हो गए हैं या उन्हें साइड लाइन कर दिया गया है।’ बताते हैं अलीगढ़ से वे दिल्ली पत्रकारिता के लिए आए थे। हिन्दी में स्नातकोत्तर थे। पत्रकारिता तो मूल पेशा नहीं बन पाया, मगर लेखनी ने वो कमाल किया कि अदब की दुनिया में वे अलग से पहचाने गए। जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय नई दिल्ली में 

अध्यापकी की। सत्तर के दशक में कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। पहली कहानी बनी- ‘वह बिक गई’। उसके बाद संग्रह आए-‘दिल्ली पहुंचना है’ ‘स्विमिंग पूल’ ‘अब कहां कुछ’। नाटक लिखना शुरू किया तो ‘लाहौर’ से लेकर ‘फिरंगी लौट आए’ ‘इन्ना की आवाज’ ‘वीरगति’, ‘सनिधा’ और ‘अकी’ तक बेसाख्ता लिखते रहे। उपन्यास भी रचे जिनमें ‘रात में जाने वाले’ और ‘सात आसमान’ काफी चर्चा में रहे। लेकिन जैसा कि उनकी शख्सियत के बारे में शुरू में कहा गया, वे बहुआयामी लेखनी के धनी हैं। सो, वृत्त चित्र ‘गजल की कहानी’ हो या फिर टी.वी. धारावाहिक ‘बूंद-बूंद’, लेखनी के इन सांचों में भी बखूबी ढलने का माद्दा रखते हैं वजाहत। एक पोशीदा पहलू यह भी कि हंगरी (बुडापेस्ट) में उनके चित्रों की दो बार नुमाइश भी हो चुकी है। देश-विदेश में उन्हें व्याख्यानों के लिए भी बुलाया जाता रहा। लेकिन इस सारी विलक्षणता के बावजूद वे साहित्य की दलगत राजनीति से बेहद नाराज हैं, जिसने सही मूल्यांकन से तौबा कर आज अबौद्धिक और घटिया रूख अपना लिया है। 

बहरहाल इस सब उठा-पटक के चलते वे इस बात पर संतोष जताते हैं कि उनके लिखे-कहे को पाठक-श्रोता ने कभी खारिज नहीं किया। भोपाल में नाटक ‘लाहौर’ के शताधिक प्रयोगों का जिक्र छिड़ा, तो उन्होंने सूचना दी कि जल्दी ही यह नाटक सिनेमा की शक्ल लेगा। वजाहत की धारणा है कि नाटक की कसौटी मंचन है। किताबी दायरे में वह बेमौत मारा जाता है। ‘लाहौर- की किस्मत में शोहरत की रोशनी लिखी थी, वरना राजनीति और समाज पर कटाक्ष करते मेरे ही एक और नाटक ‘अकी’ को प्रसिद्धि के पंख नहीं मिले। वजह कि इस नाटक को मंचित करने में दिलचस्पी नहीं ली किसी ने। दुर्भाग्य से आज नाटक करने वालों का साहस भी चुक गया हैं। आज देखें कि हबीब तनवीर को अपने ‘साहस’ की कितनी बार कीमतें चुकानी पड़ीं।

असगर वजाहत की यह चिंता भी गौरतलब है कि हिन्दी प्रदेशों में साहित्य और संस्कृति का दृश्य काफी दबा हुआ है। सांस्कृतिक जागरूकता और आंदोलन के अभाव में हिन्दी प्रदेश एक तरह से चेतना शूल्य हो गए हैं। इस शून्य को कैसे तोड़ा जाए यह एक बड़ा सवाल है। देश में असहिष्णुता का जो माहौल है उसका असर नाटक पर भी पड़ रहा है। असगर बताते हैं कि कुछ साल पहले जयपुर में फिल्म अभिनेता ए.के. हंगल ने बड़े मार्के की बात कही। हंगल के अनुसार ‘इप्टा’ जैसे सक्रिय नाट्य अभियान की सांसें अगर रूक गई तो उसके पीछे कारण प्रतिरोध के खिलाफ भीतर के जुनून का ठंडा पड़ जाना है। जब तक सृजनधर्मियों के पास कोई आदर्श, कोई सपना, कोई लहर नहीं है, उनकी कलाओं में जान नहीं पैदा हो सकती। रही बात अन्य संस्थाओं की तो बहुतों के ‘अपने’ एजेंडे तय है। 

असगर वजाहत हिन्दी में अच्छे नाटक लिखे जाने की पैरवी करते हैं, जैसे कि मराठी, बांग्ला, गुजराती या कन्नड़ में हैं, लेकिन हिन्दी के बीमारू प्रदेश नाटकों की कमी पर शर्म भी नहीं करते। भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता उन्माद में अक्सर डूबे रहने वाले ये बीमारू राज्य क्या नाटक लिख सकते हैं। हिन्दी का दुर्भाग्य यह है कि यह इतनी बड़ी भाषा है और अगर इसकी बड़ी संस्कृति है, तो इसको बचाने, पालने-पोसने तथा आगे बढ़ाने की कोई चिंता क्यों नहीं करता? लगता है हिन्दी नाटककार एक विलुप्त होती प्रजाति है।

वजाहत कहते हैं- मेरे पास एक पूरा नाटक लिखने की रूपरेखा है, मैं जानता हूं कि एक नाटक को अगर लिख दिया तब भी यह मंचित नहीं हो पाएगा। इसलिए केवल पत्रिकाओं में नाटक छपवाने के लिए लिखना बेकार है। सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित यह नाटक एक ग्रीक कथानक से प्रभावित है। अब ऐसे हालातों में भी हम हिन्दी नाटकों की दशा और दिशा पर निरर्थक बहस करते रहें, यह ठीक नहीं। 

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-
विनय उपाध्याय
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