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आशीष सांस्कृत्यायन जी |
दौलत की दुहाई देने वाले अनेक पश्चिमी मुल्कों में आज हिन्दुस्तानी ध्रुपद संगीत बेचैन और बुझे दिलों के लिए सुकून का मरहम बन गया है। लेकिन जीवन के जिस आध्यात्मिक आनंद की तलाश में आज पराए वतन के वाशिंदों का कारवां चल निकला है, हमारा भारतीय मानस अभी उससे कोसों दूर है। इसी सन्नाटे को भरने का संकल्प लेकर युवा संगीतकारों के बीच रहने का मैंने मन बनाया है। ध्रुपद केन्द्र का गुरू बनकर मैं एक अर्थ में अपने ‘गुरू ऋण’ की अदायगी ही करूंगा।
इस कृतज्ञता और उम्मीद भरे वक्तव्य के साथ अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ध्रुपद गायक आशीष सांस्कृत्यायन ने लगभग दो दशकों बाद अपनी गुरू भूमि (मध्यप्रदेश) में आमद दर्ज की है। ध्रुपद की वैश्विक छवि और भारतीय मानस से जुड़े अनेक पहलुओं पर आशीष ने इस लेखक के साथ लम्बी बातचीत में अपने अनुभव साझा किए। गौर करने का पहलू यह है कि हाल ही में म.प्र. शासन संस्कृति विभाग ने ध्रुपद केन्द्र के गुरू और निदेशक हेतु इस प्रौढ़ गायक का चयन किया है। दिलचस्प संयोग यह है कि आशीष सांस्कृत्यायन इसी ध्रुपद केन्द्र में नब्बे के दशक में विद्यार्थी रह चुके है और उन्होंने बाकायदा चार वर्षों तक ध्रुपद की डागरवाणी की गुरू-शिष्य परंपरा के तहत तालीम ली।
आशीष कहते हैं - ‘‘मैं समर्पण रियाज़ और गुरू पंरपरा के उसी आदर्श की पुनर्प्रतिष्ठा करना चाहता हूं जिसने हम जैसे ध्रुपद गायकों की शख्सियत को गढ़ा’’। लगभग डेढ़ दशकों में दुनिया के कई पश्चिमी देशों की सैर कर चुके इस प्रतिभाशील संगीतकार को भरोसा है कि वे इस नई जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह कर पाएंगे। आशीष को प्रतीक्षा है होनहार-उत्साही शिष्यों की जिन्हें वे देशभर से चुनना चाहते हैं। ध्रुपद केन्द्र के इस नवागत निदेशक का मानना है कि चार बरस का प्रशिक्षण देकर इन गायकों को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता हमें उनके प्रोत्साहन और परवरिश के लिए भी मौके और मंच उपलब्ध कराने होंगे। मेरी कोशिश होगी कि मेरे अंतरराष्ट्रीय संपर्कों का लाभ ध्रुपद केन्द्र के प्रशिक्षित विद्यार्थियों को मिले। संस्कृति विभाग को भी ध्रुपद समारोह आयोजित करने का प्रस्ताव दिया जायेगा। मैं एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहता हूँ जिससे ध्रुपद केन्द्र ‘ग्लोबल नेटवर्क’ से जुड़े। उन्होंने कहा कि नई राहें खोलना मेरा दायित्व होगा।
उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन और ज़िया फरीदद्दीन डागर सहित पांच डागर गुरूओं से ध्रुपद की व्याकरण सम्मत बारीकियों की तालीम लेकर देश-दुनिया की सैर कर चुके आशीष सांस्कृत्यायन ने बताया कि यूरोप जैसे पश्चिम के मुल्क में ध्रुपद सीखने और सुनने वालों की संख्या में बेइंतहा इज़ाफा हुआ है। दरअसल अब वहां के लोग अध्यात्म की शरण में जाना चाहते हैं। शांति और सुकून चाहते है। ध्रुपद संगीत से बढ़िया भला क्या विकल्प हो सकता है। इस संगीत की खूबी है शुद्धता। इस शुद्धता के लिए व्याकरण एक पैमाना है। ग्रामर का सहारा लेकर तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। ध्रुपद सुर धीरे-धीरे बढ़त लेते हैं। यह धीमी गति ही अध्यात्मक के निकट या अद्धैत की ओर ले जाती है।
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आशीष सांस्कृत्यायन जी |
आशीष ने कहा कि दौलत को ही सब कुछ मानने वाले कई मुल्कों में आज ध्रुपद बेचैन और बुझे दिलों के लिए सुकून का मरहम बन गया है। ध्रुपद की प्रामाणिक जानकारियों के साथ तार्किक विश्लेषण करने वाले अत्यंत प्रज्ञावान और मृदुभाषी आशीष सांस्कृत्यायन की परवरिश मुंबई में हुई लेकिन यायावरी ही उन्हें रास आती रही है। हर बार ध्रुपद का चिंतन करते हुए किसी नए निष्कर्ष को नई रसिक बिरादरी में बांटने का कौतुहल उनके विचार और व्यक्तित्व में बहुत साफ पढ़ा जा सकता है। यह दक्षता और कौशल उन्होंने सतत अध्ययन-संवाद तथा समावेशी मानसिकता से अर्जित किए हैं। उनकी पत्नी साउथ कोरियन है - किम सांग आह। पियानो बजाती है।
अपना तजुर्बा सुनाते हुए पचास वर्षीय आशीष ने बताया कि वे पिछले पन्द्रह-बीस सालों में अनेक विदेशियों के संपर्क में आए। पता चला कि धन-दौलत, ऐश्वर्य और सुख की चरम कामनाओं में लीन रहने वाले ये धनाढ्य अब जीवन के बुनियादी आनंद की तलाश कर रहे हैं। जबकि भारत में इस समय उपभोक्तावाद चरम पर है। हमारे यहां आज शास्त्रीय कलाओं के प्रति कच्ची समझ है। सोचने-विचारने का दायरा संकीर्ण है। विदेशी संगीतकार और श्रोताओं की रूचि और समझ वैश्विक होती है। वे हर तरह की संगीत धाराओं और प्रयोगों में रूझान रखते हैं इसलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराइयों को भी उन्होंने ठीक से समझा है। ध्रुपद जैसी कठिन और शुद्धता का विशेष आग्रह रखने वाली विधा को भी दूसरे देशों ने उसके पूरे अनुशासन के साथ आत्मसात किया है।
सांस्कृत्यायन ने संगीत के संरक्षण के सवाल पर कहा कि आज़ादी के पहले भारत में कलाओं और कलाकारों को जो राज्याश्रय प्राप्त था आज उसकी बहुत कमी है। हमारे यहां सरकार, कार्पोरेट और समर्थ व्यक्तियों से जितनी अपेक्षा बनती है, उस तुलना में तो बहुत कम हासिल हो पा रहा है। विदेश में क्लासिकल कॉन्सर्ट हजारों की संख्या में हो रहे हैं। बहुत अनुशासित, पूर्व नियोजित। उत्कृष्टता से कोई समझौता नहीं। कोई माफिया नहीं, षडयंत्र नहीं। कलाकारों और आयोजक के बीच कोई अतिरिक्त जोड़-तोड़ का रिश्ता नहीं। गुणवत्ता ही सर्वोपरि है।
आशीष बताते है कि यूरोप में कला संस्थानों का प्रबंधन पेशेवर कला-संस्कृति की तालीम प्राप्त काबिल लोगों के अधिकार में होता हैं। जरूरी नहीं कि वे खुद किसी विधा के कलाकार हों लेकिन कला-संस्कृति की गतिविधियां चलाने की प्रशासनिक दक्षता उनके पास होती है। हमें भारत में भी यही वातावरण बनाने की जरूरत है। लेकिन आज भारतीय कलाओं विशेषकर संगीत में साधना, धीरज, संयम और समर्पण की जगह शोहरत और होड़ ने ले ली है। ब्रोशर में महान गुरूओं का नाम देना कलाकारों के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है, भले ही उनके करीब पांच-दस मिनिट का रियाज़ भी नसीब न हुआ हो। इसीलिए आगे जाकर कलाकारों में कुण्ठाएं पनपती है। आशीष सांस्कृत्यायन ने इस विसंगति के बीच तर्क दिया कि हमारे कलाकारों को ऊंचे संकल्प लेकर संघर्ष के मैदान में कूदना पढ़ेगा। खुद के फन को, शख्सियत को कुछ इस तरह मांजना होगा कि उसकी चमक के साथ खरेपन की शिनाख्त साफतौर पर की जा सके।
आशीष ने खुद अपनी मिसाल दी- ‘‘बारहवीं पास करने के बाद मैंने डेंटिस्ट बनना चाहा लेकिन राह बदली और गणित विषय लेकर स्नातकोत्तर हो गया। फिर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का कोर्स कर एक सरकारी संस्थान में रिसर्च स्कॉलर हो गया। इस बीच सितार बजाने का शौक चढ़ा। मगर मेरे भीतर कुछ ऐसी हलचल हुई कि नौकरी छोड़कर ध्रुपद सीखने भोपाल चला आया। चार साल ध्रुपद केन्द्र में उस्ताद (फरीदुद्दीन डागर) से सीखा। भोपाल में रहा लेकिन इत्तफाक देखिए पिछले बीस सालों में एक भी समारोह में मेरा गायन नहीं हुआ। .....और अब इसी ध्रुपद केन्द्र में बतौर गुरू मेरी आमद हुई है। दरअसल मैंने कभी अपना मनोबल गिरने नहीं दिया। आशीष बताते है कि छोटे-छोटे प्रयास और सक्रियताएं ही बड़े मुकाम तक पहुंचाते हैं। आज मेरे पास ध्रुपद के क्षेत्र में काम करने का एक बड़ा वैश्विक नेटवर्क है लेकिन मैं अपने देश के नए कलाकारों से उसका रिश्ता बनाना चाहता हूं।
आशीष को उम्मीद है कि वे भोपाल में ध्रुपद केन्द्र के नए बैच को प्रशिक्षण देना शुरू कर देंगे। दस छात्रों का चयन देश भर से आमंत्रित आवेदन के आधार पर होगा जिन्हें प्रतिमाह चार वर्ष तक रूपए दो हजार का वजीफा (स्कॉलरशिप) दिया जाएगा। ध्रुपद केन्द्र के लिए नए भवन की तलाश जारी है। सारे विद्यार्थी उसी भवन में गुरू के साथ रहेंगे। विद्यार्थियों की उम्र के बंधन को योग्यता के अनुसार आशीष शिथिल करना चाहते हैं जो फिलहाल 14 से 30 वर्ष नियत की गई है।
योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-
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